बहुत पुरानी बात है। एक महान सम्राट था, जो पराक्रमी, बुद्धिमान और अपनी प्रजा में अत्यंत प्रिय था। उसके राज्य में हर कोई सुखी और संपन्न जीवन जी रहा था। सम्राट की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी, और लोग उसे अब तक का सबसे महान शासक मानते थे।
सम्राट का एक पुत्र भी था, जो अपने पिता की तरह महान बनना चाहता था। परंतु अच्छा उत्तराधिकारी बनने की कोशिश में वह अक्सर छोटी-बड़ी गलतियाँ कर बैठता। हर गलती के बाद वह चिंता में डूब जाता — “लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” — यही विचार उसे भीतर से खाए जाते थे। धीरे-धीरे उसकी आत्मविश्वास कम होने लगी और वह हमेशा भयभीत और हताश रहने लगा।
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समस्या का हल ढूँढने की तलाश
इसी राज्य में एक प्रसिद्ध भिक्षुक भी रहता था, जो अपनी बुद्धिमता और दूरदृष्टि के लिए प्रसिद्ध था। एक दिन राजकुमार सुबह-सुबह उस भिक्षुक के पास पहुँचा और अपना दुखड़ा सुनाया। अंत में राजकुमार ने कहा,
“मुझे कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे मैं अपनी चिंता पर काबू पा सकूँ और सुकून पा सकूँ।”
भिक्षुक ने गंभीरता से कहा,
“यह कार्य कठिन है। क्या तुम इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार हो?”
राजकुमार ने गर्व से कहा,
“मैं कोई भी कीमत चुका सकता हूँ। मैं सम्राट का पुत्र हूँ!”
भिक्षुक मुस्कराया और बोला,
“मैं धन की बात नहीं कर रहा। मैं तुम्हें कुछ कार्य दूँगा, जिसे तुम्हें बिना प्रश्न पूछे पूरा करना होगा।”
राजकुमार ने सहमति में सिर हिलाया।
अनोखा कार्य
भिक्षुक ने कहा,
“तुम्हें बाजार जाना है, और वहां सबसे बड़े कबाड़ की दुकान से कुछ पुराना लोहा खरीदकर लाना है। लेकिन याद रहे, तुम्हें यह कार्य खुद करना होगा, नौकरों के सहारे नहीं।”
राजकुमार चौंक गया। उसने जीवन में कभी राजमहल से बाहर पैदल कदम भी नहीं रखा था। जहाँ उसके एक इशारे पर सैकड़ों सेवक तैयार रहते थे, वहां अब उसे अकेले बाजार जाना था।
फिर भी, समस्या का समाधान पाने की जिज्ञासा में वह सहमत हो गया।
यात्रा की शुरुआत और मानसिक संघर्ष
जैसे ही राजकुमार बाजार की ओर निकला, उसके मन में असंख्य विचारों की सुनामी आ गई।
“लोग क्या सोचेंगे?”
“कोई मेरा मजाक न उड़ा दे?”
“राजकुमार होकर बाजार में पैदल घूम रहा हूँ!”
हर कदम पर वह शर्मिंदा महसूस कर रहा था। वह सिर नीचे किए, जल्दी-जल्दी चलता रहा। अंततः वह कबाड़ की दुकान पर पहुँचा। घबराहट में उसने जल्दी से कुछ पुराना लोहा खरीदा और राजमहल लौट आया।
सच्चा सबक
भिक्षुक ने उसे देखकर मुस्कराते हुए पूछा,
“कैसा अनुभव रहा?”
राजकुमार ने कहा,
“बहुत मुश्किल था। हर पल मुझे डर था कि लोग क्या सोचेंगे।”
तब भिक्षुक ने बड़े प्यार से कहा,
“यही तो तुम्हारी समस्या है, राजकुमार।
लोग तुम्हारे बारे में उतना नहीं सोचते जितना तुम सोचते हो। हर व्यक्ति अपने जीवन की चिंताओं में डूबा है। तुम्हारी गलतियाँ, तुम्हारा डर — ये केवल तुम्हारे मन में हैं। जब तुम इस भय को त्याग दोगे, तभी सच्चा सुकून पाओगे।”
यह सुनकर राजकुमार की आँखें भर आईं। उसे अपनी गलती का एहसास हो गया।
निष्कर्ष
यह कहानी हमें सिखाती है कि “लोग क्या कहेंगे” की चिंता हमें भीतर से खोखला कर देती है। हमें अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए, न कि दूसरों की सोच पर।
सच्ची आज़ादी तब मिलती है जब हम दूसरों की अपेक्षाओं से ऊपर उठकर अपने जीवन को जीना सीखते हैं।